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मार्च, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हमारे रिश्ते...

हमारे रिश्ते भी क्या ऐसे बने कि वो कागज़ी हो गए सिर्फ नाम के रिश्ते अपनी ज़िंदगी में रह गए वक़्त की परत में ऐसे दबे कि सब धुंधले हो गए अनजानों को क्या कहे जब अपने ही अजनबी हो गए  अपना कह कर, जिनके संग चले थे हम  रास्तो के मोड़ पर, हमको अकेला छोड़ कर  किनारे से ही, वो हम से कट लिए   हमारे रिश्ते भी क्या ऐसे बने कि वो कागज़ी हो गए सिर्फ नाम के रिश्ते अपनी ज़िंदगी में रह गए  क्या कहेंगे दुनिया से कि वो हमारे क्या थे  ये सोच कर परेशान हूँ कि वो अब हमारे क्या हैं आवाज़ को क्या, हम तो उनकी यादों को भी तरसे न जाने क्यों, आज बहुत दिनों के बाद ये नैना भी बरसे   रिश्ते भी ऐसे बने कि उनमे अहसासों  की दस्तक हो लम्हों का मिलना और फिर सदियों का बिछुड़ना न हो उनमे वो पहले वाली बातें हो कम ही सही, लेकिन मुलाक़ातें तो हों आख़िर रिश्ते की बड़ी है नाज़ुक डोर दोनों तरफ से बंधा हो इसका छोर लेकिन फिर सोचता हूँ कि सिर्फ मेरे चाहने से होगा क्या कुछ उनकी तरफ से पहल भी तो हो इसी इंतज़ार में दिल से निभाए रिश्ते कागज़ी हो गए सिर्फ नाम के रिश्ते अपनी ज़िंदगी में रह गए...

न रह इस शोर में तू ख़ामोश...

जो लोग चुप  रहकर अन्याय को देखते और सहते हैं,  लेकिन  कुछ करते नहीं हैं.  यह कविता उन्ही लोगों के लिए है ... न रह इस शोर में तू ख़ामोश आख़िर कहाँ गया तेरा वो जोश क्या चुप रहना तेरा है जवाब लेकिन ऐसे  तो  नहीं बनेगी ये बात   क्यों सोया तेरे अंदर का इंसान उसको न समझ तू यूँ नादान एक तेरी आवाज़ की अभी भी कमी है  आँखों में तेरी अब क्यों नमी है क्या हालात से किया तूने समझौता डाल दे इस भंवर में अपनी नौका  तोड़ दे अपने अन्दर के इस चुप को  दूर कर अपने मन के इस घुप को   पूर्ण कर इस यज्ञ में  अपनी  आहूति अब तो तेरे प्रण से जलेगी ये ज्योति अपने  सुप्त ज्वालामुखी  को तू झकझोर  और मचा दे चहुँ ओर तू शोर    ये कैसी हिचक और कैसी घबराहट  सुने आज ज़माना तेरी हर आहट लेकिन पहले अपने मन की दीवारों को तू तोड़ फिर इस संसार से नाता तू जोड़  कहाँ दबा तेरे अंदर का आक्रोश     न रह इस शोर में तू खामोश  आख़िर  कहाँ गया तेरा वो जोश...