न रह इस शोर में तू ख़ामोश...


जो लोग चुप रहकर अन्याय को देखते और सहते हैं, लेकिन कुछ करते नहीं हैं. यह कविता उन्ही लोगों के लिए है...

न रह इस शोर में तू ख़ामोश
आख़िर कहाँ गया तेरा वो जोश
क्या चुप रहना तेरा है जवाब
लेकिन ऐसे तो नहीं बनेगी ये बात  
क्यों सोया तेरे अंदर का इंसान
उसको न समझ तू यूँ नादान
एक तेरी आवाज़ की अभी भी कमी है 
आँखों में तेरी अब क्यों नमी है
क्या हालात से किया तूने समझौता
डाल दे इस भंवर में अपनी नौका 
तोड़ दे अपने अन्दर के इस चुप को 
दूर कर अपने मन के इस घुप को  
पूर्ण कर इस यज्ञ में अपनी आहूति
अब तो तेरे प्रण से जलेगी ये ज्योति
अपने सुप्त ज्वालामुखी को तू झकझोर 
और मचा दे चहुँ ओर तू शोर   
ये कैसी हिचक और कैसी घबराहट 
सुने आज ज़माना तेरी हर आहट
लेकिन पहले अपने मन की दीवारों को तू तोड़
फिर इस संसार से नाता तू जोड़ 
कहाँ दबा तेरे अंदर का आक्रोश    
न रह इस शोर में तू खामोश 
आख़िर कहाँ गया तेरा वो जोश...  

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