छपरा का रेडियो मयूर 90.8 और मेरी यादें...

        यहां ब्लॉग पर लिखना तो पिछले साल फ़रवरी में था. यानी फ़रवरी 2016 में, लेकिन मैं लिखने बैठा हूं अब फ़रवरी 2017 में, यानी पूरे एक साल बाद. कुछ आलस और कुछ फालतू के काम और ज़िन्दगी की तमाम उलझनों में फंस कर रह गया और लिखना टलता गया. अभी कुछ दिन पहले ही सलमान और प्रिंस ने फेसबुक पर फोटो पोस्ट की कि हमारी दोस्ती को एक साल हो गया है. तभी याद आया कि छपरा पहली बार गए हुए भी तो मुझे एक साल हो गया है और फिर छपरा तो दोबारा भी होकर आ गया हूं. सोचा, अब तो लिखना ही है चाहे कुछ भी हो. सलमान, प्रिंस और बहुत से दोस्तों और चाहने वालों से मुझे मिलवाया मेरे पुराने ऑफिस लोक सभा टेलीविज़न के साथी और अब दोस्त आकाश अरुण ने. छपरा से लौट कर मैंने आकाश से कहा था कि छपरा और छपरा के पहले कम्युनिटी रेडियो के बारे में ज़रूर कुछ लिखूंगा.

        सपना क्या होता है? सपने को साकार करने के लिए कैसे कड़ी मेहनत की जाती है? कैसे किसी सपने के साथ जिया जाता है और जब सपना साकार हो जाता है तब कैसा महसूस होता है? उस सपने को मैंने छपरा में साकार होते देखा है. वो सपना रेडियो मयूर 90.8 के तौर पर सामने आता है. रेडियो मयूर 90.8 छपरा (सारण) और देश का पहला कम्युनिटी(सामुदायिक) रेडियो स्टेशन है जो 9 घण्टे के प्रसारण के साथ शुरु हुआ और शायद बहुत जल्दी ही यह स्टेशन 18 घंटे प्रसारण(Broadcast) करने की प्लैंनिंग कर रहा है. मैं छपरा क्यों गया? कैसे रेडियो मयूर 90.8 के साथ जुड़ा? यही सब यहां बताने की एक कोशिश... 
         
        आकाश से मेरी पहली मुलाक़ात लोक सभा टीवी की कैंटीन में हुई थी. इससे पहले मैं आकाश से नहीं मिला था, लेकिन मेरे एक दूसरे दोस्त सिद्धार्थ के ज़रिये आकाश के बारे में जाना था. तब सिद्धार्थ ने कहा था कि आकाश के किसी जानने वाले को दिल्ली यूनिवर्सिटी के कम्युनिटी रेडियो में ट्रेनिंग लेनी है. उस समय मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी के कम्युनिटी रेडियो में भी एनाउंसर के तौर पर काम कर रहा था और वहां आकाश के दोस्त की मैंने रेडियो की संचालक मैम से बात करवा दी थी कि ये रेडियो में ट्रेनिंग लेना चाहते हैं. वो बात और है कि आकाश के उस दोस्त ने रेडियो में ट्रेनिंग ली ही नहीं. तो इस तरह आकाश से मेरी पहली बार बात हुई. तब उसने बताया कि वो अपने शहर छपरा में भी एक कम्युनिटी रेडियो स्टेशन खोलने की तैयारी कर रहा है. यह बात जनवरी 2013 की है. इसके बाद कम्युनिटी रेडियो स्टेशन के बारे में आकाश से मेरी कोई बात नहीं हुई. उसके बाद के दो सालों में काफी कुछ बदला.  

        सितम्बर 2015 में, एक दिन आकाश का व्हाट्सएप (whatsApp) पर मेसेज मिला कि छपरा जाकर मेरे कम्युनिटी रेडियो स्टेशन के वॉलंटियर्स को रेडियो की ट्रेनिंग दे सकते हो? फिर फ़ोन पर बात उससे हुई. मैंने कहा कि इससे पहले कभी मैंने कभी इस तरह की ट्रेनिंग दी नहीं है. लेकिन अपने पर इतना भरोसा तो था कि कम्युनिटी रेडियो और आकाशवाणी में काम करने के दौरान जो ग़लतियां करते हुए मैंने जो कुछ सीखा है उतना तो उन वालंटियर्स को बता सकता हूं. साथ ही जहाँ तक पढ़ाने की बात है तो देहरादून में भी लगभग नौ सालों तक बच्चों को पढ़ाया और आजकल भी पढ़ा ही रहा हूं, लेकिन मेरे ये स्टूडेंट्स कुछ ख़ास हैं और इन्हें पढ़ाने का तरीका कुछ और है. फिर भी कुछ सोचकर मैंने हां कर दी.   

        इस बीच, आकाश के छोटे भाई अभिषेक से यहीं दिल्ली में मिला. तब अभिषेक ने बताया कि उसने छपरा  में लगभग 40-50 वॉलंटियर्स को चुना है. अभिषेक ने अपनी टीम के साथ कई स्कूल, कॉलेज और इंस्टिट्यूट का दौरा किया और तब कहीं जाकर इन सभी वॉलंटियर्स को ऑडिशन के बाद चुना. इन्हीं वॉलंटियर्स को मुझे कम्युनिटी रेडियो स्टेशन में काम करने के बारे में बताना होगा.

        फिर मैंने भी अपनी तैयारी भी शुरू की. ऐसी ट्रेनिंग देने की, जिनमें मैं ख़ुद तो शामिल कई बार हुआ लेकिन ट्रेनिंग देने वाले की हैसियत से नहीं, एक सीखने वाले प्रशिक्षु की हैसियत से. दिल्ली यूनिवर्सिटी के कम्युनिटी रेडियो और आकाशवाणी में शुरू के दिनों में ट्रेनिंग हुई थीं. वही नोट्स संभालकर रखे थे. कम्युनिटी रेडियो में विजयलक्ष्मी सिन्हा मैम और सुचित्रा मैम ने ट्रेनिंग के दौरान काफी कुछ बताया था, साथ ही, आकाशवाणी में भी चुघ सर, मित्तल सर और तौहीद सर ने भी इतनी जानकारी दी थी कि वो सभी नोट्स भी अब काम आ रहे थे. इसके साथ-साथ समाचार कक्ष के अपने सीनियर साथी अतहर सईद और नईम से भी पूछा कि वॉलंटियर्स को क्या कुछ नया बता सकता हूं. उन्होंने भी काफी कुछ बताया और मदद की। मेरे ये दोनों साथी एफ एम रैंबो और एफ एम गोल्ड पर प्रोग्राम पेश करते हैं. 2008 में, देहरादून में, एन. आई. वी. एच. में भी एक वर्कशॉप में भी शामिल हुआ था. उसमे रिकॉर्डिंग की बारीकियों के बारें में जानकारी दी गयी थी. उस वर्कशॉप में जैन सर और लखनऊ से आये मिहिर सर ने बहुत कुछ सिखाया था. उस वर्कशॉप के नोट्स भी फिर से पढ़े और इस तरह मैंने अपनी तैयारी की छपरा जाने की.   

        इधर, बीच-बीच में आकाश से भी बात होती रही. हर बार वो यही कहता कि तैयारी करो, कभी भी जा सकते हैं. लेकिन जाने की तारीख़ तय नहीं हो रही थी. कभी मेरी छुट्टियां तय नहीं हो रही थीं और कभी उसे ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल रही थी. इस बीच एक एक्सीडेंट में आकाश के हाथ में फ्रेक्चर हो गया. यहां दिल्ली में वो अकेले रहता है. अब उसे हर हाल में अपने घर छपरा जाना ही था ताकि वो कुछ दिन आराम कर सके. फ्रेक्चर की वजह से उसे ऑफिस से छुट्टी भी मिल गई. हम दोनों ने इस फ्रेक्चर पर ख़ूब मज़ाक भी किया कि आख़िर छुट्टी मिली भी तो किस वजह से? लेकिन अब यह तय हो गया था कि छपरा जायेंगे.  

        और एक बात थी रिज़र्वेशन की. मालूम नहीं कितनी बार छपरा के लिए रेल की रिज़र्वेशन की कोशिश की लेकिन हर बार नाकामी हाथ लगी. छपरा के लिए टिकट बुक करते समय पता चला कि अपने शहर देहरादून के लिए कम से कम रिज़र्वेशन के लिए इतनी परेशानी नहीं उठानी पड़ती है. जब मन में आया, बैग उठाया और निकल पड़े देहरादून के लिए.

         और इस बीच जनवरी, 2016 आ पहुंची.

        फिर एक दिन शाम को आकाश का फ़ोन आया कि रिज़र्वेशन मिल गई है और 28 जनवरी को हम छपरा जा रहे हैं. 28 जनवरी की शाम को ट्रेन में बैठे और अगले दिन शाम को 7 बजे हम छपरा पहुंचे। ट्रेन पूरे 5 घण्टे लेट थी. मेरा प्लान तो उसी दिन ही वॉलंटियर्स से मिलने का था. लेकिन ट्रेन लेट हो गई और शेड्यूल बदलना पड़ा. घर पर आकाश के पिताजी और मांजी से मिला. उन्होंने मेरा नाम पूछा? मैंने कहा- बलबीर सिंह गुलाटी। उन्होंने  कहा- इतना बड़ा नाम! मैं हंस पड़ा. वे बोले हमारे दोनों बेटों के नाम छोटे-छोटे हैं- आकाश अरुण और अभिषेक अरुण.

        अगले दिन 11 बजे वर्कशॉप की टाइमिंग थी. घर के पास ही एक स्कूल में सभी इंतज़ाम किये गए थे. धीरे-धीरे सभी वॉलंटियर्स आने लगे. इसके बाद सभी मेहमानों का रस्मी स्वागत किया गया. वर्कशॉप में कई अनुभवी लोगों ने अपनी बात रखी. डॉ लाल बाबू यादव, श्री शशि कुमार, मयूर कला केंद्र के महासचिव और आकाश के पिताजी श्री पशुपतिनाथ अरुण और आकाश ने सभी वॉलंटियर्स का हौसला बढ़ाया. डॉ लाल बाबू यादव बिहार और छपरा की पत्रकारिता में बहुत बड़ा नाम हैं. उनके बातों को सभी वॉलंटियर्स ने बहुत ध्यान से सुना. उन्होंने कई ऐसी बातें बताई जो हमे किताबों में नहीं मिलती. उनका अनुभव उनकी बातों में साफ़ झलक रहा था. उन्होंने स्मार्ट फ़ोन जेनेरेशन को पढ़ने की सलाह दी. उन्होंने साफ़ कहा कि पढ़ोगे नहीं तो कुछ बोल भी नहीं पाओगे। श्री शशि कुमार ने पत्रकारिता से जुड़ी बातें बताई.

        श्री पशुपति नाथ अरुण ने मयूर कला केंद्र से जुड़ी यादें सभी के साथ साझा की. आकाश के पिताजी ने ही 1979 में मयूर कला केंद्र की स्थापना की थी. आकाश के पिताजी रंग मंच की दुनिया के बहुत बड़े कलाकार रह चुके हैं. आकाश ने बताया कि उसके पिताजी ने पूरे भारत में अपनी टीम के साथ मिलकर कई सौ शो किये हैं. उन्होंने अपनी टीम के साथ मिलकर छपरा में कई वर्षों तक रंगमंच का उत्सव आयोजित किया. इस के उत्सव में राष्ट्रीय स्तर के रंग मंच के कलाकार हिस्सा लेने आते थे. उनकी बातें सुनकर बेहद अच्छा लगा. मैंने भी अपनी बात रखी. यही कहा कि जो ग़लतियां मैंने की हैं बस आप वो ग़लतियां ना करें. अपनी कुछ नई ग़लतियां करें और उनसे सीखें. वही आगे चलकर आपका अनुभव बनेगीं.

डॉ लाल बाबू यादव सभी को संबोधित करते हुए
        बाद में जब डॉ लाल बाबू यादव जाने लगे तो आकाश ने मुझे उनसे मिलवाया. तब डॉ यादव ने कहा कि छपरा के इन बच्चों को आपको ही संवारना है. उस समय मैं बस इतना ही कह सका- मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूंगा और आप निराश नहीं होंगे. यहां, इन सब के बीच एक बात तो रह ही गई. और वो है आकाश के छोटे भाई अभिषेक की. अभिषेक ही वर्कशॉप की सभी तैयारियों में लगा था. पानी से लेकर वर्कशॉप के लिए प्रिंटआउट्स, फोटोकॉपी का इंतज़ाम सभी कुछ अभिषेक के ज़िम्मे ही था. इस काम में उसकी मदद कर रही थी- रेडियो मयूर की यंग टीम. यंग टीम में सलमान, प्रिंस, रंजन, रंजीत,  रवि प्रकाश, उज्जवल और उनके सभी साथी इस वर्कशॉप को कामयाब बनाने में लगे हुए थे.

      वर्कशॉप से पहले अभिषेक से बात हुई की कि सभी वॉलंटियर्स को एक साथ वर्कशॉप में बुलाया जाए या जिनका सिलेक्शन एनाउंसर, रिसर्च या कोरेस्पोंडेंट के लिए किया  है उन्हें अलग अलग बुलाया जाये. मैंने कहा कि सभी को एक साथ ही ट्रेनिंग दे सकते हैं. कम से कम सभी को कुछ न कुछ जानकारी तो मिल ही जाएगी.

      ख़ैर, इसके बाद अब मुझे वर्कशॉप में असल मुद्दे पर बोलना था. जिसके लिए मैं ख़ास तौर पर दिल्ली से छपरा आया था. इसके बाद थोड़ी जान-पहचान का समय शुरू हुआ. सभी को अपने बारे में बताया. वॉलंटियर्स से उनके बारे में जाना. बातचीत के दौरान पता चला कि सभी वॉलंटियर्स में सिर्फ़ एक लड़की ही ऐसी थी जिसने जर्नलिज्म और मास कम्युनिकेशन का कोई कोर्स किया था, बाकि सभी वॉलंटियर्स रेडियो से अनजान थे. यहां मुझे लगा कि सभी वॉलंटियर्स को एक साथ बुलाना सही था. अब सभी एक साथ कम्युनिटी रेडियो के बारे में जान सकेंगे.  फिर बात मैंने कम्युनिटी रेडियो से शुरू की कि कैसे भारत में इसकी शुरूआत हुई? सुप्रीम कोर्ट के आदेश. सब के बारे में बताया. अब कितने कम्युनिटी रेडियो स्टेशन भारत में काम कर रहे हैं? फिर धीरे-धीरे टॉपिक दर टॉपिक बताता गया.


     
       बीच-बीच में माहौल हल्का करने के लिए हंसी-मज़ाक का दौर भी चलता था. इस दौरान मुझे अपनी ट्रेनिंग के दिन याद आ रहे थे. किस तरह हम टीचर से बार-बार सवाल पूछते और वे कितने इत्मिनान से हमारे हर सवाल का जवाब देते. उन्ही सब बातो का अब मैं सामना कर रहा था. इस बीच कब तीन घंटे बीत गए, पता ही नहीं चला. कई वॉलंटियर्स चूंकि काफी दूर से आए थे उन्हें घर वापिस भी जाना था. इसलिए कुछ टॉपिक पर बातचीत अगले दिन के लिए टाल दी और इस तरह वर्कशॉप का पहला दिन ख़त्म हुआ. चलते-चलते वॉलंटियर्स से बात हुई तो कुछ हद तक लगा कि वॉलंटियर्स तक अपनी बात पहुंचाने में मैं सफल रहा. लेकिन, अभी भी दो बाकि थे काम अभी ख़त्म  नहीं हुआ था.


     
        वर्कशॉप के अगले दिन की शुरुआत मेरे लिए कुछ हैरानी भरी हुई. हुआ यूं कि कोई भी वॉलंटियर्स तय समय तक नहीं पहुंचा था. मुझे लगा कि कल मैंने ऐसा क्या कह दिया कि आज कोई भी नहीं आया। मेरे लिए हालात अब बेहद अजीब थे. मैंने आकाश से पूछा- भाई! कल मैंने ऐसा क्या कह दिया था कि कोई भी अब तक नहीं आया? वो भी कुछ जवाब न दे सका. उसके लिए भी ये बात परेशानी भरी थी.  इतनी देर  में कुछ वॉलंटियर्स आते नज़र आए. अपनी ही चाल में धीरे-धीरे आ रहे थे. उन्हें देखकर मेरी जान में जान आयी. कुछ तो वॉलंटियर्स आये लेकिन अभी भी काफी लोगों का इंतज़ार था. पहले ही काफी देर हो चुकी थी सो इनके साथ ही मैंने वर्कशॉप के दूसरे दिन की शुरुआत की.


        ख़ुशी की बात यह थी कि थोड़ी देर में लगभग सभी वॉलंटियर्स आ गए. लगा कि देर से आये लेकिन आ तो गए. सबसे पहले तो सभी वॉलंटियर्स की ज़ोरदार क्लास ली कि देर से क्यों पहुंचे? सभी के कुछ न कुछ बहाने थे. वही बहाने जिनका उपयोग शायद हम भी अपनी ट्रेनिंग के दौरान कर चुके थे. उनके बहाने सुनकर हंसी और थोड़ा गुस्सा आ रहा था उनसे कहा कि रेडियो का मतलब सब कुछ समय पर हो. घड़ी की सुई के साथ सभी काम हो. अब यह देरी कभी नहीं होनी चाहिए। शायद सभी वॉलंटियर्स यह बात समझ चुके थे. ख़ैर, इसके बाद कम्युनिटी रेडियो के प्रोग्राम बारे में बातचीत शुरू हुई. लगभग ढाई घण्टे तक यह सेशन चला. मेरा ज़्यादा ज़ोर प्रैक्टिकल-ट्रेनिंग पर था. वॉलंटियर्स भी खूब रूचि ले रहे थे. मेरी तैयारी अब बेहद काम आ रही थी. मेरे लिए भी अपने पुराने दिन, अपने कोर्स, अपनी ट्रेनिंग को फिर से याद करने जैसा था.


          वर्कशॉप के तीसरे दिन सभी वॉलंटियर्स टाइम पर आये थे. अब किसी से कोई शिकायत नहीं थी. आज रेडियो की स्क्रिप्ट पर बात होनी थी. अपने टॉपिक के बारे में किस तरह रिसर्च की जाये. गूगल के महासागर में से अपने काम की बातें कैसे ढूंढी जाएं. उन बातों/मेंन पॉइंट्स को अपनी स्क्रिप्ट में कैसे शामिल किया जाए. सभी वॉलंटियर्स को किसी भी टॉपिक्स पर लिखने और बोलने को कहा गया. यह सेशन बहुत मज़ेदार रहा.



        सभी वॉलंटियर्स ने नए-नए आईडिया शेयर किये. इन सभी के लिए माइक पर लोगों के सामने बोलना नया अनुभव था. कुछ वॉलंटियर्स की घबराहट सामने आ रही थी तो कुछ बहुत ही बिंदास हो कर बोल रहे थे. सभी को अपनी आवाज़ फ़ोन पर रिकॉर्ड करके खुद सुनने को कहा.

        सबसे मज़ेदार सेशन उर्दू के शब्दों के बारे में रहा. हिंदी-उर्दू के शब्दों का फर्क समझाना मेरे लिए भी काफी मुश्किल भरा रहा. उर्दू शब्दों में नुक्ता कहां लगना चाहिए और कहां नहीं, इस पर वॉलंटियर्स परेशान दिखे. उन्हें मैंने यही सलाह दी कि उर्दू के जानकर लोगों से यह ज़रूर पूछें. इन्टरनेट पर इसके बारे में बहुत जानकारी दी गयी है लेकिन जो उर्दू के जानकर हैं वो शब्दों को बोल कर ठीक तरह से बता सकते हैं. इस तरह वर्कशॉप का तीसरा दिन ख़त्म हुआ. रात को ही मुझे वापिस दिल्ली लौटना था. हालांकि अगले दिन भी वर्कशॉप का शेड्यूल तय था. उसके लिए अभिषेक ने तैयारी की थी. जाते-जाते रेडियो मयूर की पूरी टीम और सभी वॉलंटियर्स के साथ फोटो खिंचवाई। सबसे बड़ा पल तो मेरे लिए शायद उस वक़्त आया, जब वर्कशॉप के बाद कुछ वॉलंटियर्स मेरे पैर छूने लगे. उन्हें ऐसा करते देख मैं पीछे हटने लगा. लगा कि ये बच्चे मुझे कुछ ज़्यादा ही इज़्ज़त दे रहे हैं, लेकिन सच में उस वक़्त मेरी आंखें नम होने लगी. अपने को संभाला और फोटो खिंचवाई. (आकाश अभी भी पैर छूने वाली बात पर पता नहीं क्यों हंसता है?)


        यहां एक बात बताना ज़रूरी है वो हैं आकाश की मांजी की. छपरा में आकाश के घर एक पल भी मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं घर से बाहर हूं. हर समय उन्होंने ध्यान रखा कि मुझे किसी तरह की परेशानी न हो. छपरा में तीन दिन से ज़्यादा गुज़ारने के दौरान सबसे बड़ी बात कि मैंने घर का खाना मिस नहीं किया, क्योंकि मांजी ने वो कमी मुझे महसूस होने ही नहीं दी.


     
        रेडियो मयूर की टीम की बात के बिना यह सारी बात बिल्कुल अधूरी होगी. सलमान, प्रिंस, सुशांत, रंजन, रंजीत, रवि प्रकाश, अभिजीत, उज्जवल, पुनीतेश्वर और आशुतोष- इन सभी से दोस्ती हुई जो आज तक जारी है. प्रिंस से तो मेरी बातचीत होती ही रहती है. आकाशवाणी में रात को ड्यूटी के दौरान प्रिंस ने जाने कितनी बार मेरे समाचार बुलेटिन सुने होंगे. सलमान अब दिल्ली शिफ्ट हो गया है. लेकिन अभी तक उससे यहां मिल नहीं सका हूं. इन सभी के अलावा आर. जे. (RJs) की भी पूरी टीम है- विक्रम, पूजा, दीक्षा, स्वाति, मृणालिनी, प्रसन्ना, शकील, अर्चना, अभिनव, सुप्रीत, अम्बुज, चंदन और भी बहुत सारे हैं. यह सभी फेसबुक पर मेरे दोस्त बन चुके हैं.

        रेडियो शुरू होने बाद से विक्रम को तो ना जाने कितनी बार उसके शब्दों के बोलने के तरीके पर डांट चुका हूं. कई बार वो व्हाट्सएप्प (whatsApp) के ज़रिए अपनी ऑडियो भेजता है चेक करने के लिए कि जहां भी ग़लत बोला है उसे बताएं ताकि अगली बार वो उन शब्दों को ठीक से बोल सके. आकाश के कहने पर खास तौर पुनीतेश्वर की रिकॉर्डिंग भी सुनी और उन्हें कुछ सलाह दी, इनके अलावा आदित्य, करन और श्रेय भी हैं. इन तीनो से मैं अभी मिला नहीं हूं, लेकिन फेसबुक के ज़रिये आदित्य और करन से काफी बार प्रोग्राम के बारे में बात हो चुकी है. यह देखकर अच्छा लगता है कि इन सभी वॉलंटियर्स में सीखने की चाह है. अपने में सुधार करना चाहते हैं. ताकि हर बार अपने श्रोता को कुछ नई बात, नए तरीके से बता सकें.

      इस दौरान, मुझे छपरा को नज़दीक से देखने और समझने का मौका भी मिला. लगभग हर शाम, हम नज़दीक के बाज़ार घूमने गए. सबसे बड़ी बात छपरा अभी भी मॉल कल्चर से बचा हुआ है. घूमने पर पता नहीं क्यों मुझे कुछ-कुछ हरिद्वार के जैसा महसूस हुआ. वैसी ही गलियां और घरों के दरवाज़े. बाजार में वैसी ही चहल-पहल. रंजीत के रेस्त्रां में शाम को पित्ज़ा खाना हो या फिर रेलवे स्टेशन के बाहर की एक बहुत पुरानी दुकान की चाय पीनी हो.(इस स्टेशन का नाम याद नहीं आ रहा है. यह छपरा से अगला स्टेशन ही है) सभी जगह का स्वाद चखा. (मंडी के पास वाली दुकान की चाय पीनी अभी बाकी है. आकाश ने बताया था कि यहां की चाय बेजोड़ है. साथ ही मुझे पता है कि अगर आकाश साथ हो तो मुझे एक दिन में ज़्यादा नहीं तो छः या सात बार चाय पीने को मिल ही जाएगी. वो कितनी बार पीएगा इसका मुझे अंदाज़ा नहीं). अभिषेक और सलमान के साथ पास ही बहने वाली नदी के किनारे की सैर नहीं भूलूंगा। लौटते समय उन्होंने पास में ही रहने वाले अशोक से मिलवाया। ये एक ऐसे अनोखे चित्रकार हैं जो अपने शरीर(body) से पेंटिंग करते हैं. यह जानकार बहुत ही हैरानी हुई कि इस अनोखे हुनर बावजूद अशोक गुमनाम-सी ज़िन्दगी जी रहे हैं. इस तरह के कलाकारों को मौका ज़रूर देना चाहिए.

      अशोक से मिलने के बाद घर की ओर चल दिए. मुझे अपना सामान भी पैक करना था. रात को दिल्ली वापसी की ट्रेन थी. मुझे दिल्ली अकेले ही जाना था. हाथ के फ्रैक्चर की वजह से आकाश छपरा में रुक गया था. स्टेशन पर ट्रैन में बैठते समय आकाश ने सलाह दी कि रास्ते में किसी अनजान से कुछ खाने को मत लेना! "ठीक है"- कह कर मैं हंसने लगा. छपरा आते समय मेरे पिताजी ने भी यही सलाह दी थी. धीरे-धीरे ट्रेन छपरा स्टेशन को पीछे छोड़ने लगी. छपरा, रेडियो मयूर के नए साथियों को भी. फिर मैं भी अपनी सीट पर सोने की तैयारी करने लगा.

        इसके बाद भी, एक बार और मैं छपरा जा चुका हूं. मई 2016 में.  सभी से दोबारा मिलना बेहद अच्छा लगा. दूसरी बार वॉलंटियर्स के साथ काफी समय गुज़ारा. उन्हें सुना, जाना और देखा. जो कुछ उन्होंने सीखा उसे वे सभी काम में कैसे ला रहें थे? देखकर बहुत ख़ुशी हुई कि वही सभी वॉलंटियर्स हैं जो पांच महीने पहले तक रेडियो के बारे में कुछ नहीं जानते थे और आज रेडियो के लिए प्रोग्राम, जिंगल्स रिकॉर्ड कर रहे हैं.

        इसके लगभग दो महीने बाद ही जुलाई 2016 में छपरा का पहला कम्युनिटी रेडियो मयूर 90.8 पूरे ज़ोरशोर के साथ शुरू हुआ. उद्घाटन के समय मैं पैर में चोट लगने की वजह से नहीं जा सका था.


पिछले दिनों आकाश ने बताया कि रेडियो मयूर में 18 घण्टे तक प्रोग्राम ब्रॉडकास्ट करने की प्लानिंग कर रहे हैं. लेकिन मैं उम्मीद करता हूं कि जल्दी ही मोबाइल एप (App) के ज़रिये हम दिल्ली में भी रेडियो मयूर 90.8 सुन सकेंगे.

(अब फ़रवरी भी ख़त्म होने को है और मुझे ख़ुशी है कि लगभग तीन हफ्ते थोड़ा-थोड़ा लिखने के बाद आख़िरकार मैंने अपने ब्लॉग पर रेडियो मयूर के बारे में आर्टिकल लिख ही लिया.)
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टिप्पणियाँ

  1. जिंदगी जिन्दा दिल मुझे बहुत अच्छा लगा इस पर एक फिल्‍म बन सकता है

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  2. मै भी छपरा का रहने वाला हु लेकिन मैं अभी दोहा कतर मे हू अभी इंटरनैशनल फलाइट बंद है इसलिए रुके है बहुत याद आता है आपना छपरा

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