संदेश

2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हमारे आशियाने

          पिछले दिनों मेट्रो स्टेशन की सीढियां चढ़ते समय देखा कि कुछ मज़दूर प्लाई बोर्ड से कबूतरों और दूसरे पक्षियों  के बैठने जगह बंद कर रहे थे। इन स्थानों को बंद करने का सीधा-सा मतलब था कि कबूतरों को बैठने से रोका जाए और शायद मेट्रो के अधिकारियों को सबसे आसान तरीका भी यही लगा। यह पंक्तियां शायद उन्ही बेज़ुबां पक्षियों की आवाज़ हम तक पहुंचा रही हैं - आख़िर एक बार फिर पड़ ही गयी तुम्हारी नज़र हम पर आख़िर कहां अपना आशियाना बनाए हम सोचो और बताओ कि अब भला कहां जाएं हम कभी पहले हुआ करते थे कुछ पेड़ यहां बसेरा हुआ करता था उन पर अपना यहां सुख-दुःख हमने अपनो संग मिल कर बांटें यहां मिलना होता था अपनों से कुछ देर के लिए यहां बस दो पल रुकते थे हम यहां अपनों से अपनी बातें होती थी रूठना और मनाना होता था यहां और फिर एक ऊंची उड़ान का दौर होता था लौट कर फिर यहां आते और कुछ लम्हे बिताते थे थोड़ी देर सुसताते थे और फिर एक बार उड़ जाते थे लेकिन काट दिए तुमने हमारे वो सारे आशियाने काटी तुमने उन पेड़ों की एक-एक टहनी उसकी बात तुमसे अब क्या कहनी आंखों के सामने हमने अपने घरो को उजड़ते देखा है लेकिन फिर