हमारे आशियाने

          पिछले दिनों मेट्रो स्टेशन की सीढियां चढ़ते समय देखा कि कुछ मज़दूर प्लाई बोर्ड से कबूतरों और दूसरे पक्षियों  के बैठने जगह बंद कर रहे थे। इन स्थानों को बंद करने का सीधा-सा मतलब था कि कबूतरों को बैठने से रोका जाए और शायद मेट्रो के अधिकारियों को सबसे आसान तरीका भी यही लगा। यह पंक्तियां शायद उन्ही बेज़ुबां पक्षियों की आवाज़ हम तक पहुंचा रही हैं -

आख़िर एक बार फिर पड़ ही गयी तुम्हारी नज़र हम पर
आख़िर कहां अपना आशियाना बनाए हम
सोचो और बताओ कि अब भला कहां जाएं हम
कभी पहले हुआ करते थे कुछ पेड़ यहां
बसेरा हुआ करता था उन पर अपना यहां
सुख-दुःख हमने अपनो संग मिल कर बांटें यहां
मिलना होता था अपनों से कुछ देर के लिए यहां
बस दो पल रुकते थे हम यहां
अपनों से अपनी बातें होती थी
रूठना और मनाना होता था यहां
और फिर एक ऊंची उड़ान का दौर होता था
लौट कर फिर यहां आते और कुछ लम्हे बिताते थे
थोड़ी देर सुसताते थे और फिर एक बार उड़ जाते थे
लेकिन काट दिए तुमने हमारे वो सारे आशियाने
काटी तुमने उन पेड़ों की एक-एक टहनी
उसकी बात तुमसे अब क्या कहनी
आंखों के सामने हमने अपने घरो को उजड़ते देखा है
लेकिन फिर भी शिकायत अपना घर उजाड़े जाने की हमने कभी किसी से न की
न किसी अदालत में दाख़िल कोई अपनी अर्ज़ी की
देख ली फिर एक बार तुम्हारी मनमर्ज़ी
देख ली फिर एक बार तुम्हारी ख़ुदगर्ज़ी
कुछ नहीं बस इतना ही कहना चाहते हैं
दिल के कोने में अपने हमें थोड़ी-सी जगह दे दो
बसा लेंगे कहीं और अपना आशियाना
लेकिन उसे तोड़ने कहीं फिर न आ जाना
अपनी बस्ती कहीं और जमा लेंगे
लेकिन तुम फिर कहीं उसे उजाड़ न देना
लेकिन तुम फिर कहीँ उसे उजाड़ न देना

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