एक सफ़र मेट्रो में...
जब भी सफ़र करता हूँ मेट्रो में कुछ अजीब सा महसूस होता है कुछ ऐसी ख़ामोशी, कुछ ऐसी चुप्पी शायद आपको भी चुभती होगी लगता है ऐसे, जैसे हज़ारों की भीड़ में अकेले हैं कुछ चेहरे पुराने और कुछ नए होते हैं लेकिन सभी चेहरों पर एक ही भाव होते हैं होंठों पर चुप्पी, जैसी कोई सजा हो मिली इंसान है या पत्थर की मूरत क्यों बनी ऐसी ये सूरत ये कैसा आवरण सभी ने लपेटा है? एक अजीब सा सन्नाटा छाया है जिसमे सिर्फ मेट्रो का शोर है अरे! ऐसे चुप क्यों बैठे हो किसकी गिरी सरकार है किसके जीवन में चिंताएं नहीं हज़ार है जिसने पहली बार किया सफ़र, उसके लिए तो ये सफ़र यादगार है लेकिन जो रोज़ करतें है सफ़र, उन्हें अपने साथियों के चंद शब्दों का इंतज़ार है सुना था ट्रेन के सफ़र में रिश्ते-नाते जुड़ जाते थे लेकिन इस सफ़र में साथ मिल कर भी, कुछ बोल नहीं पातें हैं संग अपने ख़ामोशी लाते हैं और ख़ामोशी ले जाते हैं चुप रहते हैं और चुप्पी साथ ले जाते हैं... सफ़र में अकेले आतें हैं और अकेले चले जाते हैं