आख़िर कब तक

आख़िर कब तक मैं यहां-वहां की बातें करूं
कुछ कहना चाहता हूँ पर कैसे कहूं
जो दिल में है उसे कब तक समेटे रहूं
वो कुछ ख़ास लफ्ज़, जो होंठों तक आतें हैं
न जाने क्यों, फिर वापस लौट जातें हैं
डरता हूँ कि कहीं तुम्हें खो न दूं
अपने को कहीं दर्द और तनहाइयों में न डुबो दूं
शिक़ायत है अपने आप से कि अभी तक 
तुमसे, वो बात कह नहीं पाया
हर बार अपने को, जहां था वहीं पाया 
हिचक है मन में अभी
जो न थी पहले कभी
कब तक मैं यूँ ही आहें भरूं 
आख़िर कब तक मैं यहां-वहां की बातें करूं
तुम्हारे दिल में क्या है, जानना चाहता हूँ
तुम से वो बात करना चाहता हूँ
जो कहने को सोचा है
उसे तुम्हे कितना बता पाऊंगा
यही सोच कर उलझन में हूँ
अब तुम ही बता दो
कैसे वो बात तुमसे ही कहूं
आख़िर कब तक मैं यहां-वहां की बातें करूं
कुछ कहना चाहता हूँ पर कैसे कहूं




टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सिर्फ, दो मिनट का मेला

जा रहे हो तुम मेरे शहर...

छपरा का रेडियो मयूर 90.8 और मेरी यादें...