हमारे हिस्से का आसमान
(ये कविता उन बाल मजदूरों के मन के हालात बयां कर रही है,
जो सुबह उठते ही काम पर निकल जाते हैं)
हमें भी अपने हिस्से का उजला आसमान छूने दो.
हमारे आसमान में अभी काली रात-सा अंधेरा है.
चाँद की रोशनी का दूर कही बसेरा है.
हमारी उम्मीदों को भी अब पंख लगने दो,
एक ऊँची उड़ान को थोड़ा-सा सबल दो,
हमें भी अपने हिस्से का उजला आसमान छूने दो....
बचपन क्या होता है हमने नहीं जाना,
आज तक अपने वजूद को नहीं पहचाना.
छोटी सी हथेली की लकीरे भी छोटी हैं,
क्या हमारी किस्मत अभी से ही खोटी है?
उस सुबह का हमें भी इंतज़ार है,
जब मुट्ठी में हमारा आसमान क्या, ये सारा संसार है........
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