संदेश

अपनी-अपनी ख़ुशी

     घर जाने के लिए बस स्टॉप पर बस का इंतज़ार कर रहा था कि तभी चार-पांच छोटे-छोटे बच्चे उछलते-कूदते स्टॉप पर पहुंचे. ये बच्चे शायद पास की किसी बस्ती के रहने वाले थे और उचक-उचक कर देखने लगे कि बस आ रही है नहीं. इतने में डी. टी. सी. लाल ऐ-सी बस आती दिखी. जैसे ही वो बस रुकी, झट से सभी बच्चे उसमे चढ़ने लगे. ठीक उसी समय बस कंडक्टर की नज़र उन बच्चों पर पड़ी. 'नीचे उतरो' - ज़ोरदार आवाज़ में वो इन बच्चों पर चिल्लाया. लेकिन सभी बच्चे हंसते-हंसते 'ले-ली, ले-ली' कह कर भागते हुए बस से नीचे उतरने लगे. इसके बाद बच्चे फिर से दूसरी बस का इंतज़ार करने लगे जैसे ही कोई लाल ऐ-सी बस रुकती और ये सभी बच्चे उसमे चढ़ते और फिर ले-ली, ले-ली कह कर भागते हुए नीचे उतरने लगते. दरसअल इन बच्चों को जाना कहीं नहीं था सिर्फ इंतज़ार होता था कि लाल ऐ-सी बस आये और ये बच्चे ऐ-सी की ठंडी हवा खाएं. शायद इन बच्चों के लिए इसी में ख़ुशी छिपी थी. अगर कंडक्टर की नज़र न पड़ती तो शायद थोड़ी दूर तक घूम भी आते. बच्चों की इस मासूम सी शरारत ने मुझे बस का इंतज़ार ही भुला दिया. अब मैं अपनी बस का नहीं लाल ऐ-सी बस का इंतज़ार करने लगा...

भारत-चीन युद्ध: फ़िलहाल कोई आसार नहीं

      भारत और चीन के बीच पिछले महीने से सिक्किम के निकट जारी गतिरोध के बीच दोनों देशों के संबंधो में विश्वास की कमी को महसूस किया जा रहा है. विश्वास और भरोसा कायम करने की कोशिशें, भारत और चीन दोनों की ओर से ज़रूर हुई लेकिन संबंध उस दिशा आगे नहीं बढ़ सके, जहां उन्हें पहुंचना चाहिए था. दशकों पुराने सीमा विवाद और हाल के घटनाक्रम ने दोनो देशों के संबंधो को 1962 के बाद एक फिर संशय में डाल दिया है. अगर मीडिया में आ  रही ख़बरों को माने तो निकट भविष्य में  दोनों देशों के बीच  युद्ध होने जा रहा है दोनों देश इसकी तैयारी भी कर रहे हैं. मौजूदा समय युद्ध की नहीं बल्कि संयम और एक-दूसरे पर भरोसा रखने की मांग करता है. दोनों देशों का परिपक्व नेतृत्व इस गतिरोध को दूर कर ही लेगा .  मगर इस दौरान दोनों देशों के बीच जो कटुता बढ़ रही है उसे दूर करने में लम्बा समय लग सकता है.               इस गतिरोध के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग जर्मनी के हैम्बर्ग शहर में 7 और 8 जुलाई को हुए जी-20 सम्मेलन से अलग मिले. दोनों नेताओं ने ब्रिक्स देशों- ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका

छपरा का रेडियो मयूर 90.8 और मेरी यादें...

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        यहां ब्लॉग पर लिखना तो पिछले साल फ़रवरी में था. यानी फ़रवरी 2016 में, लेकिन मैं लिखने बैठा हूं अब फ़रवरी 2017 में, यानी पूरे एक साल बाद. कुछ आलस और कुछ फालतू के काम और ज़िन्दगी की तमाम उलझनों में फंस कर रह गया और लिखना टलता गया. अभी कुछ दिन पहले ही सलमान और प्रिंस ने फेसबुक पर फोटो पोस्ट की कि हमारी दोस्ती को एक साल हो गया है. तभी याद आया कि छपरा पहली बार गए हुए भी तो मुझे एक साल हो गया है और फिर छपरा तो दोबारा भी होकर आ गया हूं. सोचा, अब तो लिखना ही है चाहे कुछ भी हो. सलमान, प्रिंस और बहुत से दोस्तों और चाहने वालों से मुझे मिलवाया मेरे पुराने ऑफिस लोक सभा टेलीविज़न के साथी और अब दोस्त आकाश अरुण ने. छपरा से लौट कर मैंने आकाश से कहा था कि छपरा और छपरा के पहले कम्युनिटी रेडियो के बारे में ज़रूर कुछ लिखूंगा.         सपना क्या होता है? सपने को साकार करने के लिए कैसे कड़ी मेहनत की जाती है? कैसे किसी सपने के साथ जिया जाता है और जब सपना साकार हो जाता है तब कैसा महसूस होता है? उस सपने को मैंने छपरा में साकार होते देखा है. वो सपना रेडियो मयूर 90.8 के तौर पर सामने आता है. रेडियो मयूर 90.8 छ

हमारे आशियाने

          पिछले दिनों मेट्रो स्टेशन की सीढियां चढ़ते समय देखा कि कुछ मज़दूर प्लाई बोर्ड से कबूतरों और दूसरे पक्षियों  के बैठने जगह बंद कर रहे थे। इन स्थानों को बंद करने का सीधा-सा मतलब था कि कबूतरों को बैठने से रोका जाए और शायद मेट्रो के अधिकारियों को सबसे आसान तरीका भी यही लगा। यह पंक्तियां शायद उन्ही बेज़ुबां पक्षियों की आवाज़ हम तक पहुंचा रही हैं - आख़िर एक बार फिर पड़ ही गयी तुम्हारी नज़र हम पर आख़िर कहां अपना आशियाना बनाए हम सोचो और बताओ कि अब भला कहां जाएं हम कभी पहले हुआ करते थे कुछ पेड़ यहां बसेरा हुआ करता था उन पर अपना यहां सुख-दुःख हमने अपनो संग मिल कर बांटें यहां मिलना होता था अपनों से कुछ देर के लिए यहां बस दो पल रुकते थे हम यहां अपनों से अपनी बातें होती थी रूठना और मनाना होता था यहां और फिर एक ऊंची उड़ान का दौर होता था लौट कर फिर यहां आते और कुछ लम्हे बिताते थे थोड़ी देर सुसताते थे और फिर एक बार उड़ जाते थे लेकिन काट दिए तुमने हमारे वो सारे आशियाने काटी तुमने उन पेड़ों की एक-एक टहनी उसकी बात तुमसे अब क्या कहनी आंखों के सामने हमने अपने घरो को उजड़ते देखा है लेकिन फिर

अदम गोंडवी की कुछ रचनाएं

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है उसी के दम से रौनक आपके बँगले में आई है इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्‍नी का उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले हमारा मुल्‍क इस माने में बुधुआ की लुगाई है रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है तुम्‍हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है तुम्‍हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है उधर जमहूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ' गरीबी में ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है तुम्‍हारी मेज चाँदी की तुम्‍हारे ज़ाम सोने के यहाँ जुम्‍मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है

धुप्प दा टोटा(धूप का टुकड़ा)- अमृता प्रीतम

अभी कुछ दिनों पहले ही पंजाबी की प्रसिद्ध कवियित्री अमृता प्रीतम की कुछ  कविताएँ  पढने को मिली। उनकी एक कविता पंजाबी और उसके हिंदी अनुवाद के साथ...  धुप्प दा टोटा मैनू उह वेला याद ए— जद इक टोटा धुप्प सूरज दी उँगली फड़. के न्हेरे दा मेला वैखदां भीड़ां दे विच्च गुआचिया। सोचदी हाँ — सहिम दा ते सुंज दा वी साक हुंदा ए मैं जु इस दी कुछ नहीं लगदी पर इस गुआचे बाल ने इक हत्थ मेरा फड़ लिआ तू किते लभदा नहीं— हत्त्थ नू छोंहदा पिआ निक्का ते तत्ता इक साह ना हत्त्थ दे नाल परचदा ना हत्त्थ दा खांदा वसाह न्हेरा किते मुकदा नहीं मेले दे रौले विच्च वी है इक आलम चुप्प दा ते याद तेरी इस तरहाँ जिओं इक टोटा धुप्प दा. और अब  इस कविता का  हिंदी अनुवाद धूप का टुकड़ा मुझे वह समय याद है— जब धूप का एक टुकड़ा सूरज की उंगली थाम कर अंधेरे का मेला देखता उस भीड़ में खो गया। सोचती हूँ : सहम का और सूनेपन का एक नाता है मैं इसकी कुछ नहीं लगती पर इस खोए बच्चे ने मेरा हाथ थाम लिया तुम कहीं नहीं मिलते हाथ को छू रहा है एक नन्हा सा गर्म श्वास न  न  हाथ से बहलता है न हाथ को छोड़ता है अंधेरे का कोई पार नहीं मेले

काश! कि मैं, तुम और तुम, मैं बन सकते

काश! काश! कि मैं, तुम और तुम, मैं बन सकते  तभी तुम्हें मालूम हो सकता मेरे दिल का हाल तुम मेरे दिल में देखते  मैं तुम्हारे दिल में झांक लेता  तुम्हारे लिए मेरे दिल में  प्यार का कितना बड़ा  समंदर मेरे अनकही बातों को तुम समझ लेते  अब तुम्हारी  चुप्पी को मैं जान लेता  तुम्हारी यादों को कैसे मैंने संजोया है उन पलों का किस्सा भी इसमें  जब ये फूट फूट रोया है  उस वक़्त का हिस्सा भी ज़रूर होगा तुम्हारे दिल में  जब मैंने तुम्हारा दिल दुखाया है काश! काश! कि मैं, तुम और तुम, मैं बन सकते  तभी तुम्हें मालूम हो सकता मेरे दिल का हाल  तुम मेरे दिल में देखते  मैं तुम्हारे दिल में झांक लेता तुम भी साँझ लेती  कि थे वो मेरे ऐसे ही हालात जिन्हें तुम बहाने समझती थी तब होता इल्म तुम्हें जिन्हें तुम राज़ समझती थी  कुछ ग़लतफ़हमियाँ मेरी भी दूर होती  काश! काश! कि मैं, तुम और तुम, मैं बन सकते  तभी तुम्हें मालूम हो सकता मेरे दिल का हाल तुम मेरे दिल में देखते  मैं तुम्हारे दिल में झांक लेता