भक्ति या फिर कुछ और...
इस लेख को लिखने से पहले मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि ये लेख उस सर्वशक्तिमान, सर्वव्याप्त ईश्वर की निंदा नहीं है बल्कि हमारे समाज में फैली अंध श्रद्धा पर एक प्रहार है.
भारत एक ऐसा देश है, जहाँ पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक कण कण में ईश्वर बसा हुआ है. आप जहाँ जायेंगे, ईश्वर को एक नए रूप में पाएंगे. उस ईश्वर पर विश्वास, श्रद्धा, भाव, समर्पण में कोई कमी नहीं होगी. इसलिए हमारे समाज में उस सर्वशक्तिमान ईश्वर का विशेष स्थान है.
भारत एक ऐसा देश है, जहाँ पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक कण कण में ईश्वर बसा हुआ है. आप जहाँ जायेंगे, ईश्वर को एक नए रूप में पाएंगे. उस ईश्वर पर विश्वास, श्रद्धा, भाव, समर्पण में कोई कमी नहीं होगी. इसलिए हमारे समाज में उस सर्वशक्तिमान ईश्वर का विशेष स्थान है.
लेकिन ये समर्पण, श्रद्धा, भाव, विश्वास में अंध भक्ति शामिल हो गयी हैं. सप्ताह के सातों दिन किसी न किसी भगवान से सम्बंधित हैं. तरह-तरह की तथाकथित पूजन विधियाँ है जिनसे ईश्वर को रिश्वत देने की कोशिश की जाती है. सोमवार को ही लें. सोमवार के दिन ही लाखों-हजारों लीटर दूध शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है. दही, शहद की तो बात ही अलग है. धर्म के नाम पर ऐसा क्यों? क्या भगवान सिर्फ दूध, दही, शहद चढ़ाने से ही ख़ुश हो जातें हैं? क्या और कोई उपाए नहीं है?
अब बात शनिदेव की. शनिदेव को पिछले कुछ समय से ऐसे देव के रूप में लोगों को बताया जा रहा है कि शनिदेव को नाराज़ नहीं करना चाहिए. वो बहुत जल्दी रुष्ट हो जातें हैं. शनिदेव लोगों का बहुत बुरा कर देतें है. इन सब बातों का असर ये है कि अब शनिवार के दिन आप भी लोगों को शनिदेव के मंदिर में लाइन में खड़ा ज़रूर देखतें होंगे. ये शनिदेव की भक्ति है या डर या फिर कुछ और. मैं जानना चाहता हूँ ऐसा कौन सा भगवान है जो अपने भक्तों का बुरा सोचता है और करता है. परमात्मा की भक्ति में कोई बुराई नहीं है लेकिन शनिवार के दिन मंदिर में शनिदेव की मूर्ति पर हज़ारों लीटर सरसों का तेल चढ़ाया जाता है. एक ओर सरसों का तेल चढ़ाया जा रहा होता है तो दूसरी ओर वही तेल पीछे के रास्ते से बोतलों में भर कर मंदिर के बाहर फिर से बेचा जाता है. इन सब के अलावा दाल और नील भी शनिदेव को समर्पित किया जाता है.
अब मेरा सवाल उन प्रकांड पंडितों, विद्वानों से है जो भक्तों को ईश्वर के नाम पर ना जाने क्या-क्या करवा रहे हैं? भारत जैसे देश में जहाँ ग़रीबों की तादाद लाखों में है, ईश्वर के नाम पर दूध, तेल बहाया जा रहा है. जहाँ एक वक़्त की रोटी खाने के बाद उस गरीब को नहीं पता कि अब उसे खाना फिर कब नसीब होगा?
मेरा सवाल उन लोगों से है जो रोज़ मंदिर जाते है, क्या उन्हें एक बार भी ये ख्याल नहीं आता कि जो दूध शिवलिंग पर वो चढाते है उस दूध से मंदिर के बाहर बैठे गरीब के बच्चे की भूख शांत हो जाएगी? वो तेल जो शनिदेव की मूर्ति पर चढ़ाया उससे किसी ग़रीब के घर में एक वक़्त का खाना बन जायेगा. अभी पिछले कुछ समय की ही बात है. एक समाचार चैनल में दिखाया जा रहा था कि भगवान के होनहार भक्तों को न जाने क्या सूझी कि उन्होंने भगवान को देसी घी से स्नान करवा दिया. भगवान की मूर्ति पर लाखों लीटर शुद्ध देसी घी बहाया जा रहा था. सड़क पर देसी घी पानी की तरह बह रहा था. वहीँ दूसरी ओर पास के गाँव के लोग सड़क पर बह रहे देसी घी को इक्कठा करके अपने घर ले जा रहे थे. आपका जवाब हो सकता है कि ईश्वर की कृपा से उन गाँव वालों को देसी घी मिल गया. इन सबकी क्या ज़रुरत है? क्या इन सब के बिना ईश्वर की पूजा, उपासना नहीं की जा सकती? अरे, शबरी ने तो भगवान राम को जूठे बेर खिलाये थे. ईश्वर आपकी भक्ति से प्रसन्न होते हैं. आपकी भक्ति में उस समर्पण की ज़रुरत है. तभी आपको ईश्वर मिल सकतें है. मैं जानना चाहता हूँ कि आप क्या सोचते हैं?
अंत में अपनी बात संत कबीर की पंक्तियों के साथ समाप्त करना चाहता हूँ-
अंत में अपनी बात संत कबीर की पंक्तियों के साथ समाप्त करना चाहता हूँ-
मोको कहाँ ढूंढें रे बन्दे में तो तेरे पास में,
ना तीरथ में, ना मूरत में, ना एकांत वास में
ना मंदिर में, ना मस्जिद में, ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में, मैं तो तेरे पास में.
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